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हरपरौरी: भोजपुरी लोक का एक विलुप्त स्त्री-अनुष्ठान
धनंजय सिंह, सहायक प्रोफेसर (हिंदी)
डॉ.एसआरके गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज, यानम, पोंडिचेरी
सारांश
यह व्याख्यान भोजपुरी भारत की बहुजन स्त्रियों द्वारा प्रदर्शित हरपरौरी अनुष्ठान के बारे में है, जिसमें स्त्रियाँ अकाल पड़ने पर बारिश के लिए रात अंधेरे में गाँव में फेरी लगाती थीं। उसके बाद बाहर खेत में इकट्ठा होकर नग्न होकर बैल बनती थीं। हल जोतने का स्वांग करती हुई गीत गाती थीं। चिल्ला-चिल्लाकर गाँव के मालिकों को गालियाँ देती थीं। हालाँकि पुरुषों के लिए यह देखना वर्जित होता था, गाँव का मालिक उनके लिए खाना-पानी देकर लौट जाता था और हरपरौरी की ये स्त्रियाँ खाना लेकर अपने घरों को लौट जातीं। अकाल में यह सिलसिला दस-पंद्रह दिन लगातार चलता था।
इस व्यख्यान में बहुजन स्त्रियों द्वारा प्रदर्शित अनुष्ठान हरपरौरी के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के अनछुए पहलू बात होगी। आज भले ही यह अनुष्ठान भोजपुरी क्षेत्र से लगभग विलुप्त हो चुका है, लेकिन अतीत का यह अनुष्ठान अपने स्वभाव में बहुत सारे सवाल लेकर मुँह बाये खड़ा है। यथा- भूख-प्यास से लेकर अकाल के अन्नों का इतिहास अभी तक अध्ययन के दायरे में नहीं आया है। जिसका कुछ उत्तर हरपरौरी के लोकगीतों के माध्यम से मिलता है।
भारत में अकालों के अर्थशास्त्र की अपेक्षाकृत समाजशास्त्र का इतिहास लेखन बेहद कम हुआ है और वह भी अकाल की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के माध्यम से तो बिल्कुल ही नहीं हुआ है, अगर हुआ भी है तो वह प्राणीविज्ञान के सन्दर्भ में है। प्रस्तुत व्यख्यान उसी कमी के मद्देनजर एक प्रयास है। इस व्याख्यान में औपनिवेशिक लेखन में हरपरौरी अनुष्ठान के उद्देश्य, उसके प्रदर्शन का स्वरूप, सामाजिकता के संदर्भ में उसके लोकगीतों की व्याख्या करने की कोशिश होगी और निजी साक्षात्कारों के आधार पर हरपरौरी में भाग लेने वाली स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का जायज़ा होगा। इसके साथ ही हरपरौरी की प्रतीकात्मक व्याख्या और लोकाभिव्यक्ति एवं लोकस्मृति में अकाल तथा हरपरौरी की अंकित तस्वीर को उभारने का जतन होगा।
वक्ता का संक्षिप्त परिचय
धनंजय सिंह लोकसंस्कृति के नवाचार में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की शिक्षा पायी है। पिछले चार वर्षों से पॉन्डिचेरी में डॉ. एसआरके गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कर रहे हैं। इसके पूर्व ये भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एवं लाइब्रेरी, तीनमूर्ति में फेलो रह चुके हैं। इन्होंने 'पुरबियों का लोकवृत्त वाया देस-परदेस', भिखारी ठाकुर और लोकधर्मिता', 'प्रवासी श्रम इतिहास मौखिक स्रोत: भोजपुरी लोकसाहित्य', 'प्रवासी श्रमिकों की संस्कृति और भिखारी ठाकुर का साहित्य’ इत्यादि किताबें लिखी हैं। इन्होंने प्रतिमान, भाषा, गगनांचल, मड़ई, जर्नल ऑफ माइग्रेशन अफेयर्स, इतिहास दर्पण, हिमांजली, अनभै साँचा, पूर्वोत्तर प्रभा, कृतिका, जनसत्ता इत्यादि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन किया है। फ़िलवक्त धनंजय सिंह भोजपुरी लोकवृत्त के विविध अनछुये पहलुओं पर शोध कर रहे हैं।
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